Sunday, 14 April 2013

बेखौफ़ आज़ादी: Women’s Right is Human’s Right



मर्दवाद से छुटकारा पाना एक बड़ी सांस्कृतिक लड़ाई है: वीर भारत तलवार

By वीर भारत तलवार
बेखौफ़ आज़ादी:  Women’s Right is Human’s Right
16 दिसंबर के बलात्कार के बाद देश में और खासकर दिल्ली में व्यापक पैमाने पर जिस जनआंदोलन का उभार हुआ, और उसमें जिस तरह जेएनयू के विद्यार्थियों ने भाग लिया और यहाँ के छात्रसंघ ने जैसी भूमिका निभाई, सबसे पहले मैं उसको सलाम करता हूँ। जेएनयू की इस ऐतिहासिक भूमिका के लिए उसको हमेशा याद किया जाएगा।
यह आंदोलन जो आज हुआ है, और लगातार आगे बढ़ रहा है, इसके महत्व को हम एक दूसरे तरीके से भी समझ सकते हैं। 1970 के दशक में जो मथुरा रेप केस का फैसला हुआ, जिसमें सुप्रीम कोर्ट ने यह कहा कि लड़की चरित्रहीन थी और उसका बलात्कार नहीं हुआ। इस फैसले के विरोध में 18 जनवरी 1980 को बंबई के कई संगठन सड़कों पर आए और उन्होंने मिल कर ‘फोरम अगेन्स्ट रेप’ नामक एक फोरम बनाया और उसके माध्यम से धीरे-धीरे पूरे देश में आंदोलन फैल गया। 8 मार्च को दिल्ली, कलकत्ता, मद्रास सभी जगह रेप के खिलाफ आंदोलन हुए। इसके साथ ही उसका एक कल्चरल विंग भी था जिसमें स्टडी-ग्रुप वगैरह भी थे और ये रेप के खिलाफ जो फोरम बना, जो इनके सदस्य थे, वे पीड़ित महिलाओं, जिनके साथ रेप हुआ था, उनके पास जाकर उनकी काउन्सलिन्ग करते थे। इस प्रकार उसे एक जन-अभियान का रूप दिया गया था।
आज जो जन-आंदोलन चल रहा है उसमें एक बड़ा और महत्वपूर्ण फर्क है। 1980 में जो आंदोलन बंबई से शुरू हुआ वह मुख्य रूप से महिला-संगठन का आंदोलन था। कुल मिलकर लगभग 150 सक्रिय महिलाएं सामने आई थीं और उन्होंने इस आंदोलन को चलाया था। लेकिन इस बार जो आंदोलन हुआ है यह सिर्फ महिला संगठनों द्वारा संचालित नहीं है, बल्कि महिला संगठन बहुत कम हैं इसमें। यह आंदोलन जिस बड़े पैमाने पर फैला उसका एक बहुत बड़ा कारण हिंदुस्तान की एक बड़ी वामपंथी राजनीतिक पार्टी, उसका एक बड़ा स्त्री संगठन एपवा (APWA) और उसका एक बड़ा विद्यार्थी संगठन आइसा (AISA) है। ये संगठन अगर नहीं होते तो यह आंदोलन आज देशव्यापी रूप नहीं ले पाता। जनाक्रोश को एक संगठित और व्यापक रूप देने के लिए एक राजनीतिक संगठन कितना जरूरी है, यह आज बहुत महत्वपूर्ण है। हमें यह ध्यान में रखना चाहिए कि आज देश में कोई भी राजनीतिक दल ऐसा नहीं है जो इस तरह के आंदोलन को फैलाना चाहता हो, सिवाय इसको भुनाने के। यह एकमात्र संगठन था (AIPWA और AISA), जिसने जनाक्रोश को देखते हुए उसके मूल्यों के लिए इस लड़ाई को फैलाया।DSC_0071
दूसरी बात मैं यह कहना चाहूँगा कि भारत में बदलाव लाने के लिए जो आंदोलन हैं, वह कहाँ से शुरू हो सकते हैं? हिंदुस्तान की सारी राजनीतिक व्यवस्था, जो political class है, जो सिर्फ चुनाव लड़कर सत्ता हासिल करना चाहते हैं, उनकी सीमाएं आज बहुत अच्छी तरह से स्पष्ट हो चुकी हैं। अन्ना हज़ारे का आंदोलन, एक ऐसा आंदोलन था जो बड़ी संभावनाओं के लिए हुआ था, हालांकि उसकी कई सीमाएं भी थीं। वह सभी राजनीतिक दलों के खिलाफ था इसलिए किसी भी राजनीतिक दल ने उसका समर्थन नहीं किया। मैं समझता हूँ कि वामपंथियों को उस आंदोलन को उसकी सीमाओं से मुक्त करके, उसकी अंतर्निहित संभावनाओं का अपने ढंग से विकास करना चाहिए था क्योंकि एक पूरा जनांदोलन बनने की असीम शक्ति उस आंदोलन में थी। दुर्भाग्य से हिंदुस्तान का वामपंथी आंदोलन इस काम से चूक गया। वे भी चूक गए जो आज इस आंदोलन को उठा रहे है, लेकिन यह अच्छी बात है कि आज जो आंदोलन हुआ, वामपंथी संगठन इस काम से नहीं चुके और उसने इस सवाल को उठाया।
एक महत्वपूर्ण दृष्टि से यह सांस्कृतिक आंदोलन है। किसी देश में बदलाव का आंदोलन कहाँ से शुरू होगा यह कहा नहीं जा सकता है। आप सब जानते हैं कि चीनी क्रान्ति का आंदोलन भी 4 मई के एक सांस्कृतिक आंदोलन से ही शुरू हुआ था और संयोग से वहाँ के विद्यार्थियों ने ही 1919 ई. में किया था। मैं वर्तमान आंदोलन के एक सांस्कृतिक रूप को ज्यादा देख पा रहा हूँ। यह एक महत्वपूर्ण सांस्कृतिक आंदोलन है जिसने हमारे देश में जेंडर (Gender) के सवाल को व्यापक पैमाने पर उठाया है। इस सांस्कृतिक आंदोलन के उभरने के साथ-साथ दुश्मन भी तैयार गया है। दो खेमें इस आंदोलन के बाद उभर कर आए हैं। इस आंदोलन के विरोधी खेमों के प्रतिनिधियों ने, चाहे वो शंकरचार्य हों, मोहन भागवत हों या राजनीतिक दलों के नेता भी हों, उन लोगों ने भी अपनी बातें कही हैं। स्त्रियों की लक्ष्मण रेखा खींची है और बताया है कि स्त्रियाँ भी दोषी हैं। महत्वपूर्ण व्यक्तियों द्वारा कहे जाने के बाद भी इस विरोधी खेमे की आवाज़ कमजोर सी लगी है। पर मैं आपसे कहना चाहूँगा कि दुश्मन को आप कमजोर न समझिएगा। उसके पीछे बहुत बड़ी ताकत है जनता की पिछड़ी हुई चेतना, जनता की सोयी सोई हुई चेतना, जिन सवालों पर जनता को कभी सचेत नहीं किया गया है। वह पिछड़ी हुई चेतना ही इन लोगों की सबसे बड़ी ताकत है, उसी के बल पर ये लोग खड़े हैं। ये जो हमारी संस्कृति की प्रथाएँ हैं, हमारी धार्मिक मान-मर्यादाएं हैं, जो सदियों से चली आ रही हैं, ये सब इनकी ताकत हैं। अगर आप इनके खिलाफ लड़ने की हिम्मत रखते हैं तो आपको ये समझकर चलना चाहिए कि दुश्मन बहुत शक्तिशाली है। सामाजिक रूढ़िवाद उसका मुख्य आधार है और इस लड़ाई को अगर हम आगे ले जाएँगे तो निश्चित रूप से समाज में एक ध्रुवीकरण पैदा होगा- इन मूल्यों के खिलाफ और इन मूल्यों के पक्ष में। और, इस तरह इस सांस्कृतिक लड़ाई के दो मुख्य ध्रुव होंगे। एक ओर हिंदुस्तान का युवा-वर्ग होगा और दूसरी ओर हिंदुस्तान की सामंती शक्तियाँ, पुरोहितवाद, सांप्रदायिक और फ़ासिस्ट ताक़तें होंगी और उस लड़ाई के लिए मैं समझता हूँ कि मानसिक रूप से उन लोगों को तैयार होना चाहिए जो इस जनांदोलन में अपनी भूमिका निभा रहे हैं।DSC_0058
आज इस देश में सांस्कृतिक लड़ाई बहुत महत्वपूर्ण हो गई है, खासकर मौजूदा भूमंडलीकरण और बाजारवाद के कारण। ये जो पिछले 10-15 सालों में रेप की संख्या इतनी बढ़ी है उसका एक बहुत बड़ा कारण भूमंडलीकरण और बाजारवाद का माहौल है और उसे उदारीकरण की नीतियों से बढ़ावा मिला है। आज देश में लुटेरी और भ्रष्ट जितनी ताकते हैं, सबको खुली छूट मिली हुई है। आप कुछ भी कर लीजिये कुछ नहीं होगा। कानून की भूमिका सिमटकर लुटेरों की रक्षा करने और उनके खिलाफ जनसंघर्ष उठाने वालों का दमन करने तक ही सीमित रह गई है। इसके अलावा आज देश में कानून की कोई व्यवस्था और भूमिका नहीं रह गई है। लेकिन सांस्कृतिक लड़ाई लड़ने के लिए उसके बदलने तक का इंतजार नहीं करना चाहिए। यह जो एक मार्क्सवादी बहस चलती रहती है कि आधार के ऊपर ही ये चीजें खड़ी हैं और आधार बदलेगा तभी ये बदलेंगी, यह एक बीती हुई बात है। बुनियादी आधार बदलने तक कोई सांस्कृतिक लड़ाई रुकती नहीं है। माओत्से तुंग से किसी ने पूछा था कि चीन में समाजवाद तो आ गया, स्त्री-पुरुष समानता कब कायम होगी? माओत्से तुंग ने कहा था- तीन-चार सौ साल लगेंगे। यह समाजवादी क्रांति के उस सबसे बड़े नेता का कहना था। उन्होंने कोई झूठा आश्वासन नहीं दिया, कोई सब्जबाग नहीं दिखाया, कोई झूठा सपना नहीं दिखाया। समाजवाद आ जाने के बाद भी स्त्री-पुरुष सम्बन्धों में बदलाव आने में 3-4 सौ साल लगेंगे चीन में, क्योंकि बदलना इतना आसान नहीं होता है कि बुनियादी आधार बदला तो संस्कृति भी बदल गई। इसलिए संस्कृति की लड़ाई हमेशा चलनी चाहिए, बुनियादी आधार बदलने का इंतजार नहीं किया जा सकता है। ये जो सांस्कृतिक लड़ाई का सवाल है, स्वाधीनता आंदोलन के संदर्भ में भी ये सवाल उठे थे देश में। रानाडे वैगरह का यही मुख्य विरोध था कि समाज सुधार होने चाहिए, स्त्रियों की दशा में सुधार होना चाहिए, तो तिलक ने कहा- नहीं, पहले अंग्रेजों को भगाओ, पहले हमारा देश आज़ाद हो। हम अंग्रेज़ी क़ानूनों से स्त्रियों की दशा में सुधार नहीं चाहते। हम आज़ाद होंगे तो हम सारी चीजों का सुधार करेंगे। हिंदुस्तान की आज़ादी की लड़ाई से बाहर हुआ किसानों का आंदोलन, जमींदारी प्रथा के खिलाफ आंदोलन, स्त्रियों का आंदोलन। इसलिए बाहर हुआ क्योंकि आज़ादी की लड़ाई इन सवालों को नहीं उठा रही थी। ये सवाल आज़ादी की लड़ाई दौरान भी रहे कि सांस्कृतिक बदलाव की लड़ाई भी साथ-साथ शुरू होनी चाहिए या नहीं? समाजवाद के बारे में भी यह बात सही है। आधार और बुनियादी बदलाव की बहुत बात की जाती है पर लेनिन के इस कथन पर बहुत कम ध्यान दिया जाता है कि- बहुत सारे सुधार हैं जिनके लिए हमें क्रांति से पहले संघर्ष करने होंगे, कई सुधार क्रांति के बाद भी जारी रखने होंगे, कुछ ही सुधार हैं जो सिर्फ क्रान्ति के बाद शुरू किए जा सकते हैं। उन्होंने बहुत स्पष्ट रूप से देखा कि बहुत से सुधार आंदोलनों के लिए क्रान्ति तक रुकने की जरूरत नहीं है।DSC_0068सौभाग्य से 1980 के आस-पास जब हम जेएनयू आए तो देश में स्त्री-आंदोलन का माहौल था, स्त्रीवादी साहित्य पढ़ा जाता था। आज कितने लोग स्त्रीवादी साहित्य पढ़ते हैं, मैं नहीं जानता हूँ। लेकिन 1980 के दशक में एक बहुत महत्वपूर्ण किताब आई थी।  Sheila Rowbotham की किताब थी- Beyond The Fragments. Sheila Rowbotham एक ब्रिटिश वामपंथी नारीवादी थीं और उन्होंने एक बड़ी बात महत्वपूर्ण बात कही। उन्होंने कहा कि ‘स्त्री-पुरुष संबंध कैसे होंगे समाजवाद के बाद, अगर हमारी इस बारे में कोई अवधारणा है तो उस अवधारणा को साकार करने का प्रयत्त्न समाजवाद आने के बाद ही नहीं होगा, आज से होना चाहिए। समाजवाद को लाने के लिए जो संगठन हैं, जो कम्यूनिस्ट पार्टी है या और भी जो संगठन हैं, उन संगठनों के भीतर सबसे पहले उस स्त्री-पुरुष सम्बन्धों को साकार करो जो तुम समाजवाद के बाद कायम करना चाहते हो। अगर ये नहीं करते हो तो तुम्हारी उन अवधारणाओं की बात झूठी है।’ जो रूप आप कायम करना चाहते हैं उसका प्रारूप हमें पहले दिखाओ। उसे पहले अपने संगठन के अंदर प्रयोग करके दिखाओ जहां तुम्हें पूरी स्वतन्त्रता है। यह Prefigurative Movement यूरोपियन वामपंथी नारीवाद की एक बड़ी महत्वपूर्ण अवधारणा है। यह बात मुझे बड़ी अच्छी लगती है कि आज उस पारिभाषिक नाम का इस्तेमाल किए बिना, लोग इस अवधारणा की बहुत सी बातों के प्रति सचेत हो रहे हैं। यह बड़ी महत्वपूर्ण बात है।
आज इस आंदोलन ने जिन सांस्कृतिक सवालों को जन्म दिया है, उसमें सबसे महत्वपूर्ण सवाल है, स्त्री के प्रति हमारे नजरिए का। इसी प्रकार ये दो खेमे बने हैं इस सांस्कृतिक लड़ाई में, जहां एक तरफ सारी सांप्रदायिकतावादी, फ़ासिस्ट, पुरोहित, सामंतवादी, ब्राह्मणवादी ताक़तें खड़ी हैं और दूसरी तरफ जनवादी आंदोलन से जुड़े हुए वामपंथी, स्त्रीवादी लोग खड़े हैं, तो इन दोनों ताकतों की लड़ाई के बीच जो एक महत्वपूर्ण सवाल खड़ा हुआ है वो है स्त्री के प्रति नजरिए का। पुरोहितपंथी, ब्राह्मणवादी ताक़तें कहती हैं कि स्त्रियों को संरक्षण देने की जरूरत है। वो ये तो नहीं कह सकते कि बलात्कार उचित है, वो कहते हैं कि स्त्रियों को संरक्षण, सुरक्षा देने की जरूरत है। इसीलिए वो अपील करते हैं कि ‘स्त्रियों बाहर मत जाओ। घर में रहो। हम पुरुष लोग हैं, घर में तुम्हें सुरक्षा मिलेगी। तुम बाहर जाकर अपनी सुरक्षा को खतरे में डालती हो?’ यह हमारी संस्कृति का एक बुनियादी सवाल है जो आज उठके खड़ा हुआ है- स्त्री को संरक्षण चाहिए, सुरक्षा चाहिए या आज़ादी चाहिए। स्त्री कहाँ सुरक्षित है, घर में या बाहर में? वे कहते हैं, हमारी सरकार कहती है कि बाहर स्त्रियाँ सुरक्षित नहीं हैं। हम पुलिस वगैरह का इंतजाम कर रहे हैं तब तक आप बाहर कम निकलिए और रात को तो बिलकुल मत निकलिए। ये जो एक सवाल खड़ा है- क्या वाकई स्त्रियाँ घर में सुरक्षित हैं? बहू के पेट में यदि बच्चा आया है तो उसकी जांच कराई जाती है। और अगर भ्रूण में लड़की है तो उसकी हत्या कर दी जाती है। लड़की को आप घर में पैदा नहीं होने देते और आप कहते हैं कि घर में लड़कियां सुरक्षित हैं। अगर वह पैदा हो गई तो पालन-पोषण, पढ़ाई-लिखाई, खाना-पीना सब में लड़कों के साथ उससे भेदभाव किया जाता है। घरेलू हिंसा के खिलाफ वो कहीं जाकर कुछ बोल नहीं सकती है। उसी परिवार में पति बलात्कार करता है, उस बलात्कार की कहीं कोई सुनवाई नहीं है, उसको बलात्कार माना ही नहीं जाता है। घर में बाहर के मुक़ाबले कहीं ज्यादा हिंसा होती है स्त्रियों पर, यह एक सच्चाई है। बाहर के मुक़ाबले घर में स्त्री ज्यादा असहाय है। बाहर उस पर हिंसा हो तो कुछ लोगों को मालूम हो, पुलिस-थाना हो, कुछ आवाज़ उठे। घर में? घर में तो आप सवाल ही नहीं कर सकते है। पति-पत्नी के बीच की बात है, आप कौन हैं बीच में आने वाले? ये एक बंधा हुआ जवाब है। घर में स्त्री बहुत असहाय है अपने ऊपर होने वाली हिंसा के खिलाफ। समाज के सामने हमें इस बात को बार-बार दोहराना पड़ेगा कि स्त्रियाँ घर में और भी ज्यादा असुरक्षित हैं।DSC_0061
यह जो घर है वह एक प्रकार से पुरुष का उपनिवेश है जिसमें वह बाहरी हस्तक्षेप बिलकुल भी बर्दाश्त नहीं करता है और यह उपनिवेश आज से नहीं है, ब्रिटिश भारत में भी यही था। आप 19वीं सदी को याद कीजिये जिसमें स्त्री सुधार के आंदोलन चले थे और सुधारकों ने ब्रिटिश सरकार से कानून बनाने के लिए कहा था। बचपन में ही शादी हो जाती थी तो सुधारकों ने कहा कि 12 वर्ष तक लड़की के साथ intercourse नहीं होना चाहिए। अतः सरकार से कहकर यह कानून बनवाया गया। इसके खिलाफ देशव्यापी आंदोलन हुआ था। क्यों? इसीलिए कि स्त्री का मामला पुरुषों का अपना उपनिवेश है। उनके घर में सरकार दखल नहीं दे सकती है। राष्ट्रवादियों ने कहा- अंग्रेज़ सरकार और चाहे जो कानून बनाए, लेकिन हमारे घर की अंदर की चीजों में दखल नहीं दे सकती है। उनके बारे में कानून नहीं बना सकती है। ये अंग्रेज़ सरकार के खिलाफ लड़ने वाले बहुतों ने कहा। घर हमारा उपनिवेश है। तुम भारत पर कानून चलाओ लेकिन हमारे घर के बाहर। हिन्दी के बड़े-बड़े लेखक प्रताप नारायण मिश्र वैगरह सब इसके खिलाफ थे। किसी ने इसका समर्थन नहीं किया। घर के बारे में जो नजरिया रहा है इसको चुनौती देना, इसको बदल डालना हमारी संस्कृति का एक बड़ा सवाल है। स्त्री की आज़ादी की सुरक्षा, सबकी आज़ादी की सुरक्षा एक सही सवाल है। झूठे सवालों से छुटकारा पाना बहुत जरूरी है। मुक्तिबोध ने कहा था कि-
कि मैं अपनी अधूरी दीर्घ कविता में
सभी प्रश्नोत्तरी की तुंग प्रतिमाएँ
गिरकर तोड़ देता हूँ हथौड़े से
कि वे सब प्रश्न कृत्रिम और
उत्तर और भी छलमय
समस्या एक-
मेरे सभ्य नगरों और ग्रामों में
सभी मानव सुखी, सुंदर व शोषण मुक्त कब होंगे?”
सही सवाल को सामने रखिए और झूठे सवाल को खारिज कीजिए। स्त्री की सुरक्षा एक झूठा सवाल है। सबकी आज़ादी की सुरक्षा एक सही सवाल है। और इसी पर विचार किया जाना चाहिए।
मित्रो! इस आंदोलन को आप इसी रूप में हमेशा नहीं चला सकते। आप रोज-रोज जंतर-मंतर और इंडिया गेट पर जाकर रैलियाँ नहीं कर सकते। तो आज सबसे बड़ी चुनौती यह है कि इस आंदोलन को हम कैसे जिंदा रखें? एक आंदोलन को लंबे समय तक जिंदा रखने के लिए सबसे महत्वपूर्ण चीज होती है- विचारधारा। विचारधारात्मक संघर्ष ही इस आंदोलन को लंबे समय तक जीवित रख सकता है। इस विचारधारात्मक संघर्ष को आज हमें चलाने की जरूरत है। उन मूल्यों के लिए हमें यह संघर्ष चलाने की जरूरत है जिन्हें हम इस समाज में लाना चाहते हैं, जो हमारे लक्ष्य हैं और ये संघर्ष बहुत सारे रूपों में बहुत सारे मंचों से चलता है। ये संघर्ष साहित्य के मंच से चलेगा। ये संघर्ष वैचारिक गोष्ठियों, सेमीनारों, व्याख्यानों, कला, चित्रों, फिल्मों, गीत, संगीत, नाटक आदि के माध्यम से चलेगा। ये सारे सृजनात्मक रूप हैं विचारधारात्मक संघर्ष को चलाने के लिए। अगर हम इस आंदोलन से पैदा हुए सवालों को और इस आंदोलन को जिंदा रखना चाहते हैं तो हमें विभिन्न विचारधारात्मक रूपों में, विभिन्न सृजनात्मक रूपों में उन मूल्यों की लड़ाई को लड़ना होगा। जहां तक हिन्दी साहित्य की बात है तो उसके उपन्यास, कविता, कहानी आदि में जो स्त्री की नई छवि उभर रही है वह महत्वपूर्ण है। एक ताकतवर स्त्री की छवि। लेकिन हिन्दी साहित्य में जो स्त्री-विमर्श नाम का एक विमर्श चलता है, वह बड़ा ही दरिद्रतापूर्ण विमर्श है। इन सवालों पर हमें उनसे आगे जाने की जरूरत है। मैं आपको एक दूसरा उदाहरण देता हूँ। महाराष्ट्र को आप देखिए कि किस प्रकार सृजनात्मक रूप से वो हमेशा विचारधारात्मक लड़ाई को चलाते रहते हैं। एक और उदाहरण दूँ आपको। सावित्री बाई फुले। ज्योतिबा फुले और सावित्री बाई फुले इस देश में स्त्री-पुरुष सम्बन्धों का पहला आधुनिक उदाहरण हैं। उनके बारे में आपको और भी जानना चाहिए। सावित्री बाई फुले के अंदर जिस प्रकार की चेतना थी, उस चेतना को झेलम परांजपे ने ओडिसी नृत्य के कार्यक्रमों द्वारा अभिव्यक्ति दी। सावित्री बाई फुले की स्त्रीवादी कविताओं को आधार बनाकर नृत्य की कई प्रस्तुतियाँ दीं। महाराष्ट्र में एक संगठन है MAVA (Men against violence against women)। स्त्रियों पर होने वाली हिंसा के विरोधी पुरुषों का संगठन। यह पुरुषों का संगठन है। फोरम अगेन्स्ट रेप में जैसे महिलाएं महिलाओं की counseling करती थीं, उसी प्रकार MAVA के सदस्य उन पुरुषों की counseling करते हैं, जो महिलाओं पर किसी भी प्रकार की हिंसा करते हैं, उनमें चेतना जागते हैं। मुझे नहीं लगता ऐसा कोई दूसरा संगठन होगा। इस प्रकार के सृजनात्मक प्रयासों का हिन्दी क्षेत्र में नितांत अभाव है।DSC_0105
जेएनयू में एक प्रतिध्वनि नाम का संगठन हुआ करता था जो क्रांतिकारी गाने गाया करता था। आज स्त्रियों के सवाल पर गाने वालों का कोई ग्रुप क्यों नहीं बन रहा है? क्यों नहीं स्त्रियों के सवाल पर हमारे इतने प्रतिभाशाली विद्यार्थी गीत लिख रहे हैं? इतनी अच्छी आवाज़ वाले क्यों नहीं गीत गा रहे हैं? इस तरह की सभाओं में हम क्यों नहीं स्त्रीवादी गीत गा सकते हैं? जो लोग चित्र बनाते हैं, स्त्रियों के सवाल पर चित्र बना सकते हैं, जो कवितायें करते हैं, कविता लिख सकते हैं, जो लोग फिल्म बनाते हैं, वो स्त्रियों के सवाल पर फिल्म बना सकते हैं। पचासों सृजनात्मक रूप हैं, जिनके माध्यम से हमें इन मूल्यों के लिए विचारधारात्मक संघर्ष को जारी रखना है। आज हम सबके सामने एक बड़ा सवाल है संस्कृति का, युवा वर्ग के सामने और खासकर युवकों के सामने। स्त्री विमर्श बहुत हुआ अब पुरुष विमर्श की जरूरत है। ज़्यादातर पुरुषों को ही समझने-समझाने की जरूरत है। स्त्री विमर्श का भी अपना महत्व है, उसे खारिज नहीं करना है लेकिन अगर व्यंग्य में भी कहें तो पुरुष विमर्श क्या है, इसे समझ लेना चाहिए। एक बहुत बड़ा सवाल है कि हम अपनी पितृसत्तात्मक मानसिकता को कैसे बदलें? ये युवा वर्ग के सामने, लड़कियों के सामने और लड़कों के सामने भी बड़ा सवाल है। मैं बिलकुल व्यावहारिक और सृजनात्मक रूप से आपके सामने ये प्रश्न कर रहा हूँ। आप सोचकर देखिए अपने व्यवहार में, अपने दृष्टिकोण में, अपने परिवार और दूसरे लोगों के रवैये में पितृसत्तात्मक मानसिकता जो हमें बचपन से अपने घर-परिवार से मिली है, समाज से मिली है, और अपने राज्य से मिलती है लगातार, इसे हम कैसे बदलेंगे?
हर युवती-युवक के सामने ये सवाल है कि जिन जीवन-मूल्यों के लिए हम लड़ रहे हैं, जेंडर-इक्यूलिटी के मूल्यों के लिए हम अपने जीवन में उसको कैसे उतारें? इसका जवाब मुझे नहीं देना है, आप लोगों को देना है। और, जवाब नहीं देना है, इसको साकार जीना है। यहाँ साहित्य के विद्यार्थी बैठे हैं। हमारी भाषा इतनी जेंडर-बायस्ड है कि कहना पड़ता है कि कमियाँ मुझमें भी हैं। मैं कई बार आदमी शब्द का प्रयोग मनुष्य के लिए करता हूँ। आदमीनामा लिखा नज़ीर अकबराबादी ने, वह पुरुषों के लिए है। हम गलत कहते हैं जब हम सबको आदमी कहते हैं। हमारी भाषा इतनी जेंडर-बायस्ड है, इसके बारे में हमें सोचना चाहिए। साहित्य के विद्यार्थियों को इस पर सोचना चाहिए कि हम किस तरह की भाषा का प्रयोग करते हैं, स्त्रियों के बारे में कितने अपशब्द हम कहते हैं। माँ-बहन की गालियों का ही सवाल नहीं है साली, ससुरा, ससुरी। मुझे क्लास में पढ़ाते हुए याद आया कि ये ससुरा, ये साला-साली इसीलिए गाली है। ये सब अत्यंत फूहड़ शब्द ही नहीं अच्छे समझे जाने वाले मुहावरेदार शब्दों में भी ये जेंडर-बायस्ड भाषा काम करती है। जैसा कि बहुत सी स्त्रियों ने कहना शुरू भी किया है यह एक प्रकार का Language Rape है। ये भाषाई बलात्कार है। हम इस प्रकार की भाषा से, इस मानसिकता से कैसे मुक्त होंगे यह महत्वपूर्ण सवाल है।
और अंत में मैं कहना चाहूँगा कि इस आंदोलन को चलाने के लिए, किसी भी आंदोलन को चलाने के लिए उसके जो मूल्य होते हैं वे मूल्य, उसके आदर्श, उसकी जो मांगें हैं, ये किसी न किसी नारे में कॉन्संट्रेट होनी चाहिए। नारे प्रतिनिधित्व करते हैं उन समस्त मांगों का, उन समस्त मूल्यों का, उस सारी चेतना का जिसके लिए हम लड़ रहे हैं। हमें कुछ ऐसे नारे विकसित करने चाहिए जो कि इस विचारधारात्मक संघर्ष को आगे भी ले जाने में बने रहें। वो एक क्रेटेरिया बन जाएँगे लोगों को जाँचने का कि आप इस नारे के साथ हैं अथवा नहीं। आप इस सारे मामले में विश्वास करते हैं या नहीं। तो समस्त चेतना, मूल्यों और संघर्ष को नापने और साथ होने का एक क्रेटेरिया बन जाता है। तो एक नारा जो जेएनयू के छात्रों ने पहले से ही दे रखा है। मुझे बहुत सही लगता है, और वो है- ‘बेखौफ़ आज़ादी’। इस सांस्कृतिक लड़ाई का सबसे प्रमुख नारा ‘बेखौफ़ आज़ादी’ होना चाहिए। ये नारा बहुत महत्वपूर्ण है। इसीलिए महत्वपूर्ण है क्योंकि इस सांस्कृतिक लड़ाई के जो तार राजनीति, प्रशासन, कानून, राज्य आदि से जुड़े हुए हैं, उस पूरे राजनीतिक परिदृश्य को ये नारा समेटता है। बेखौफ़ आज़ादी सिर्फ संस्कृति का सवाल नहीं है, बेखौफ़ राजनीति, लोकतन्त्र का, राज्य का, कानून का, पुलिस का, प्रशासन का हरेक से जुड़ा सवाल है। इसीलिए बेखौफ़ आज़ादी एक सही नारा है इस सांस्कृतिक लड़ाई का। इसके अलावा मैंने और भी नारे खोजने की कोशिश की, आप भी प्रयत्न करें। एक नारा जो मुझे ज्यादा व्यापक लगा और सही भी। मैं कहूँगा कि इस सांस्कृतिक लड़ाई से इस नारे को भी जोड़ा जाए और वो नारा है- Women’s Right is Human Right. स्त्री के अधिकारों का सवाल मानव अधिकारों का सवाल है। ये बात जो कभी दलितों के लिए अंबेडकर ने नहीं की। आज स्त्रियों के साथ होने वाले हर व्यवहार के लिए ये बात लागू है कि स्त्री अधिकार असल में मानव अधिकार हैं। इस नारे का महत्व यह है कि ये जो स्त्री-पुरुष वाला विभाजन है, एक तो प्राकृतिक विभाजन है। कोई स्त्री है, कोई पुरुष है।  लेकिन इस सवाल का मतलब शारीरिक रूप से नहीं है। इसके ऊपर जो हमारी सामाजिक निर्मिति है, ये स्त्री है और ये स्त्रीत्व होता है, ये पुरुष है और ये पुरुषत्व है। इस विभाजन को जड़-मूल से उखाड फेंकने की जरूरत है। ये स्त्री और पुरुष का विभाजन झूठा विभाजन है। बंग्ला में एक गीत है, गीत की पंक्तिया है ‘तुमी देखो नारी-पुरुष, आमी देखी शुद्धई मानुष’। तुम स्त्री और पुरुष मानकर देखते हो, मैं तो सब जगह मनुष्य को देखता हूँ। अतः ये स्त्री के अधिकार नहीं, स्त्री का सवाल है, मानवता का अधिकार है वो, मानवता का सवाल है वो। हमें पूरी मानवता के रूप में उनको उठाने की जरूरत है। आश्चर्य की बात है कि बड़े-बड़े लोग जिन्होंने मर्दवाद को चुनौती दी है। मर्दवाद से जब तक आप छुटकारा नहीं पायेंगे, आप इसी सड़ी-गली संस्कृति से छुटकारा नहीं पा सकते हैं। मर्द होना अलग बात है, मर्दवाद दूसरी बात है। ये मर्दवाद, ये पुरुषत्व, क्या चीज है ये पुरुषत्व ? ‘Boys don’t cry’ लड़के रोते नहीं,  हममें से कोई ऐसा नहीं होगा जिसने बचपन से ये बात न सुनी हो, अपने मां-बाप से, भाई-बहनों से, दोस्तों से- अए लड़का होके रोता है? छिः लड़के नहीं रोते। लड़कियों की तरह रोने बैठ गया। ये क्या बात है? ये कितनी घृणित चेतना है। हमें घृणा होनी चाहिए ऐसे सवालों से, ऐसे वाक्यों से और ऐसे मूल्यों से। मनुष्य रोता है। लड़का और लड़की नहीं रोते हैं। ऐसे सारे मुहावरे, ऐसी सारी भाषा, ऐसे सारे मूल्य जिसमें स्त्री और पुरुष का विभाजन किया गया है, फेंक देने लायक है। वो झूठे हैं, उनको खारिज कर देना चाहिए, ऐसी तमाम चीजों को। हजारी प्रसाद द्विवेदी मर्दवाद के खिलाफ लड़ते हुए उन्होंने ESCAPE में मर्दवाद को दिखाया। उन्होंने दिखाया कि ये जो लोग संन्यास ले लेते हैं ये मर्दवादी धारणा है। ये जो वैराग्य है और ये जो ऐशो-आराम, भोग-विलास है ये सब मर्दवादी धारणाएं हैं। ये जो सेनाएं खड़ी की जाती हैं, बड़े-बड़े मठ खड़े किए जाते हैं, और बड़ा राज्य का काम-धाम चलता है। ये सब मर्दवादी धारणाएं हैं। ‘बाणभट्ट की आत्मकथा’ में उनकी इन मान्यताओं को मैं बहुत महत्वपूर्ण मानता हूँ। लेकिन हजारी प्रसाद द्विवेदी जो इन बातों में मर्दवाद देख सके, वो आज भी हम नहीं देख पाते हैं। द्विवेदी जी कहते हैं कि ‘स्त्री की सफलता पुरुष को बांधने में है लेकिन उसकी सार्थकता पुरुष को मुक्त करने में है‘। ये सफलता और सार्थकता अपनी जगह पे है, लेकिन ये क्या चीज है?  क्यों स्त्री की सफलता ? अगर सफलता और सार्थकता है भी तो सिर्फ स्त्री की क्यों? पुरुष की क्यों नहीं ? हम अगर सफलता और सार्थकताओं में विश्वास करते है तो हमें कहना चाहिए कि मनुष्य की सफलता दूसरे को बांधने में है, लेकिन उसकी सार्थकता दूसरे को मुक्त करने मे हैं। ये मनुष्य का सवाल है। स्त्री ओर पुरुष का जहां भी सवाल उठाया जाएगा आप समझिए कि वो एक झूठा सवाल है और हमें उसका विरोध करना चाहिए। मर्दवाद पुरुषों और लड़कों के लिए एक बड़ा मूल्य बना हुआ है। जिसको Macho Man के द्वारा दिखाया जाता है. इसका असर बच्चों पर, खासकर बहुत साधारण लड़कियों पर, जिनकी चेतना सोई है, वो ऐसे मर्दवादी पुरुषों और लड़कों को बड़ा हीरो मानती हैं। ये मर्दवाद जो आदर्श बना हुआ है समाज में, हमारी सांस्कृतिक लड़ाई के लिए जरूरी है कि हम इस आदर्श को एक गर्हित मूल्य में बदल दें। मर्दवाद एक गर्हित मूल्य है। हर मर्द को इससे छुटकारा पाना चाहिए। हर स्त्री को भी इससे छुटकारा पाना चाहिए। मर्दवाद कोई वांछनीय चीज नहीं है, नितांत अवांछनीय चीज है। सावरकर जो मोहन भागवत वगैरह के पितामह हैं, जिनका उत्तराधिकार इन्हें मिला है, उस वीर सावरकर ने Six Glorious Epochs of Indian History (भारतीय इतिहास के छः स्वर्णिम अध्याय) किताब लिखी उसमें एक जगह उन्होंने शिवाजी के बारे में लिखा है कि ‘शिवाजी ने मुसलमानों पर आक्रमण करके उन्हें मार भगाया और उनकी स्त्रियों को बंदी बना लिया तो शिवाजी ने उन स्त्रियों को बिना बलात्कार किए छोड़ दिया, ये बहुत बड़ी गलती की शिवाजी ने। शिवाजी अपने पुरुषत्व का परिचय नहीं दे पाए।‘ आपने पाकिस्तानी फिल्म ‘खुदा के लिए’ देखी होगी उसमें वो एक लड़की से शादी करता है और उसे लाहौर से रेगिस्तान के किसी इलाके में ले जाता है। लड़का पढ़ा-लिखा है और वो लड़की तो और भी विदेशों में रह चुकी है। वो लड़की की इच्छा का ख्याल रखते हुए उससे शारीरिक संबंध नहीं बनाता है। तब मौलवी लोग कहते हैं कि ‘अरे मर्द बन मर्द, जा उसके साथ सो के आ’। इन्हीं कामों के लिए मर्दानगी रह गई है? यही मर्दानगी है? अखबार (जनसत्ता) मे मैंने एक विज्ञापन देखा, दिल्ली पुलिस का- ‘औरतों को छेड़ना कोई मर्दानगी की बात नहीं हैं’। सही लिखा। लेकिन इसके बाद नीचे और एक चीज लिखी है- ‘उनकी रक्षा करना ही मर्दानगी है‘। मै कहता हूँ इस मर्दवाद पर लानत भेजनी चाहिए। यह एक गर्हित मूल्य है और इससे छुटकारा पाना हमारी सबसे बड़ी सांस्कृतिक लड़ाई है और इस चेतना को विभिन्न सृजनात्मक रूपों, विभिन्न कलात्मक रूपों में अभिव्यक्त करना चाहिए। तो ये दो नारे- Women’s Right is Human’s Right और ‘बेखौफ़ आज़ादी’,  ये दो ऐसे नारे हैं जो इस आंदोलन का प्रतिनिधित्व करते हैं।DSC_0106
एक और बहुत बड़ी चुनौती जो इस आंदोलन के विकास में है जो मैं आपसे कहना चाहूंगा कि इस आंदोलन को छोटे शहरों में ले जाने की जरूरत है, कस्बों में और देहाती इलाकों में ले जाने की जरूरत है। आप जेएनयू में कुछ कर सकते हैं, दिल्ली में भी कर सकते है, लेकिन खुरजा में जाकर करना, भोपाल में जाकर करना, भागलपुर में जाकर करना या जौनपुर में, वहां जाकर करना जहां इनके सांमती संस्कार चलते हैं, जहां स्त्रियां कुछ नहीं कर पाती हैं, लडकियों को बुरी तरह से छेड़ दिया जाता है और तब भी नज़र नीची करके चली जाएंगी, वरना घरवाले भी लड़की की ही पिटाई करेंगे कि तू इधर-उधर क्यों देख रही थी, वहां इन आंदोलनों को, इस चेतना को, इन मूल्यों को ले जाने की ज्यादा जरूरत है. अगर सिर्फ चुनाव जीतना हमारा मकसद नहीं है तो इस आंदोलनों को छोटे शहरों में, कालेजों में, गांवों में वहां के लड़के-लड़कियों के बीच हम कैसे ले जाएं,  अगर हम इसको जिंदा रखना चाहते हैं तो यह भी एक महत्वपूर्ण काम है।
(जेएनयू छात्रसंघ द्वारा आयोजित एक सभा में 23 जनवरी 2013 को दिया गया व्याख्यान )

Tuesday, 19 February 2013

Join People's Watch Over Parltt - Feb 21, Jantar Mantar
to Demand Effective Law gainst Sexual Violence Based on Justice Verma Recommendations!
SPEAKERS WILL INCLUDE:
12 Noon - 5 PM
Shabana Azmi, Vrinda Grover, Madhu Mehra, Nilanjana Roy, Gautam Bhan, Rebecca John, Binalakshmi Nepram, Kamal Chenoy, Maitreyee Pushpa, Anand Pradhan, Bimol Akoijam, JNUSU leaders, and many other scholars, activists of the women's and students' movement

5-8 PM: Cultural performance including
Street play 'Bekhauf Azaadi' by Hirawal from Patna
Performance by Maya Krishna Rao
Solo Theatrical Performance by Rojio Usham, based on the Poetry of Irom Sharmila
Music and Poetry by Nihal Parashar and his group
Songs on the theme of women's movement and people's movements!

Do Join in Large Numbers! Buses Will Leave from JNU, DU, Jamia Millia Islamia, contact for details:
Freedom Without Fear- Bekhauf Azadi,
Campaign Against Sexual Violence and Gender Discrimination
Contact: 9868383692 , 9868033425 , 9213974505

Friday, 15 February 2013

PEOPLE'S WATCH OVER PARLIAMENT


No to Eyewash Ordinance,

For An Effective Law Against Sexual Violence 

Based on Justice Verma Recommendations


Keep The Flame Alive ... Against Rape And Sexual Violence 
From the 1st Day of the Budget Session, 21 February, Thursday, 12 Noon, Jantar Mantar, 
Join 
PEOPLE'S WATCH OVER PARLIAMENT
The Govt's ordinance does not even attempt to protect our right to 'Freedom Without Fear', instead it systematically overturns and rejects every recommendation of the Justice Verma Committee that seeks to safeguard women's autonomy and undo deeply-entrenched gender bias, end the impunity enjoyed by powerful rapists, and ensure accountability on part of the police. We have kept the struggle going for nearly two months now - let us keep the flame kindled by Delhi's brave-heart burning bright, and let us ensure that the Govt, in the Budget Session of Parliament, is forced to heed our voice. Be there in large numbers in the People's Watch Over Parliament, starting February 21, the first day of the Budget Session, 12 noon onwards, Jantar Mantar. 

Freedom Without Fear- Bekhauf Azadi,
Campaign Against Sexual Violence and Gender Discrimination
Contact: 9868383692, 9868033425, 9213974505

Tuesday, 12 February 2013

Why the Government's Ordinance is an eyewash.

 The Proposed Changes to the anti-rape laws are token sops that gloss over the Verma report.


ANY ORDINANCE is promulgated as an emergency measure. Women live in a daily state of ‘emergency’, their freedom curbed by the fear of sexual violence. But it is not this emergency that has prompted the government’s ordinance. Rather, for the government, the ‘emergency’ was the desperate need to somehow dilute and divert the Justice Verma recommendations, which reflected the aims and demands of the ongoing countrywide movement.
The Justice Verma Report was a breath of fresh air, letting in the flowing wind of democracy and freedom into all the prisons of patriarchy. For the first time, here was a set of reasoned recommendations, backed by painstaking homework recognising that sexual violence was about power, not sex; that removed sexual violence from the frame of ‘shame-honour’ and understood it in terms of women’s bodily integrity and dignity; and which sought to ablate the unbridled power and impunity that breeds violence against women. The ordinance, instead, shores up the walls of patriarchal privilege and impunity.
It is true that the ordinance broadens the definition of sexual violence, recognises stalking, acid-throwing and voyeurism as an offence, and introduces more severe punishments. But on a range of key questions, the ordinance actively militates against women’s autonomy and rights, and protects the impunity of powerful rapists, and the lack of accountability of police and other institutions.
Justice Verma’s Report had redefined the meaning of ‘consent’, stating that unless a woman indicates ‘Yes’ to sex, either by word or by gesture, no one can ‘assume’ that she consented. In the present system, many rape cases go unpunished because a woman is ‘presumed’ to have consented unless she has marks of injury on her body or on the body of the accused. She is ‘presumed’ to have consented if she is married to the accused. On the other hand, a girl is ‘presumed’ to be incapable of consent to sexual contact if she is 16-18 years old, even if her partner is of a similar young age. Moreover, she is ‘presumed’ to be lying if the man she accuses is a public servant, a judge, a magistrate, or an army officer; that is why in such cases, prior permission from the government is needed to prosecute the accused. Justice Verma sought to challenge and change these in-built patriarchal assumptions, the protective shields for the powerful, that go against justice for women. The ordinance’s purpose, instead, seems to have been to prevent these patriarchal assumptions and protective shields from being swept away.
And further, the ordinance adds provisions that make women even more vulnerable than they are under the existing laws. For instance, the ordinance makes the perpetrator of rape ‘gender neural’, i.e. both men and women can be accused of rape. This could mean that if a woman files a rape complaint against a man, he is in the right to file a counter complaint of rape against her!
The ordinance does not respect the rights of young girls between the age of 16 and 18 to have sexual contact by their consent with those of a similar age. Instead, by automatically branding all such sexual contact as ‘sexual violence’, the ordinance will strengthen the Khap panchayats and moral policing brigades, who seek to curb the freedom of young people.
The ordinance legitimises marital rape and strengthens the idea of the wife as the ‘sexual property’ of the husband. It also retains the provision of lesser sentence (minimum of two years) for a husband who rapes a legally separated wife. So, even if a wife has taken the pain to separate herself from an abusive husband, the law will make excuses for him if he rapes her. Effectively, the ordinance implies that while wives are specifically prevented from being able to accuse husbands of sexual assault — because of the ‘gender-neutral’ provision, husbands can now accuse wives of sexual assault. The exclusion of marital rape and the lesser sentence for rape of a separated wife are shocking violations of the principle, upheld by Verma, that the relationship or prior relationship of the accused with the victim will not be grounds to undermine the rape complaint or show leniency.
There is a deliberate attempt now, on part of the government as well as a variety of patriarchal voices that have become active, to suggest that ‘marital rape’ is a ‘controversial’ issue. This is strange, to say the least. What is controversial about saying that a woman, by marrying, does not sign away her sexual autonomy for life? We should ask those who are painting apocalyptic visions of disintegrating families as a result of recognising marital rape: do you mean that marriage and the family institutions rest on the pillar of the sexual power a husband enjoys over his wife? By recognising marital rape, will we not, in fact, democratise the institution of marriage to a greater extent?
The ordinance continues to offer a shield of impunity to the powerful. There are no provisions against elected candidates chargesheeted for sexual violence. It retains the requirement of ‘prior permission’ for prosecution of public servants / judges / magistrates / army officers. So, no Ruchika Girotra or Soni Sori (molested and tortured by police officers), Geetika Sharma or Rupam Pathak (raped by MLAs), or Thangjam Manorama (raped by army personnel) can expect justice under this ordinance. Senior police or army officers will not be investigated or punished for custodial rapes that are committed at their orders or with their knowledge in custody by their junior officers.
The government argues that the prior sanction clause is needed to protect public servants and army officers from ‘false complaints’. Why should the government be allowed to decide if a woman’s complaint of sexual violence is false or true? Why can’t the courts be left to decide this, especially in cases where the accused is powerful?
To ensure accountability of the police, Justice Verma has stipulated a punishment of five years imprisonment for failure to register an FIR or biased investigation, in order to instil fear of consequence in police personnel who fail to abide by the law. But the ordinance dilutes this to a mere one year.
The ordinance betrays its patriarchal core by continuing to call molestation as “outraging modesty”. Not only does it fail to ban the demeaning and sexist two-finger test, its definition of rape actually legitimises the two-finger test, in the name of “penetration for medical purposes”.
The shoddily-drafted and antiwomen ordinance, promulgated by stealth before any citizen of the country had even seen it, is a disservice to the painstakingly prepared Justice Verma Report that was formulated by a democratic and rigorous process. This is why there is a public outcry against it.
THE GOVERNMENT’s position is that they have not ‘rejected’ any of the Verma Committee’s recommendations, but have simply left out ‘controversial’ provisions. Women’s autonomy and rights, and the question of ending impunity and ensuring accountability are the backbone of the Verma Report; by terming these controversial, the government has revealed its own ideological bias.
The ordinance continues to make excuses for rape in a variety of contexts — and that is why it must, at the earliest, be replaced by a thoroughgoing Criminal Amendment Act that is based on the Justice Verma recommendations. The government must also back the Verma recommendations with budgetary allocations in the forthcoming Budget: spending enough on rape crisis centres, more judges and courts to ensure speedier trials, safe houses for women facing violence in their homes, and forensic facilities, rather than on lakhs of crores of tax giveaways to huge corporations.

Please sign the petition nd get your friends, colleagues, classmates to sign in large numbers! 


https://www.change.org/petitions/implement-justice-verma-recommendations-in-budget-session-of-parliament